काग़ज पर कलम के वास्ते
कोई सब्र पूछे तो काग़ज लिख देना। कोई वक़्त पूछे तो कलम से पूछ लेना।। एक अरसे बाद मिले हम, फिर भी अंजान नहीं लगती हो तुम। रूठना लाज़मी है तुम्हारा, क्योंकि गहरी तुमसे मेरी दोस्ती है। अब छोड़ दो यूं गुस्से का ढोंग करना मान जाओ, तुम्हें मनाने आई हूँ।। इतना कहते ही वो हँसने लगी, थोड़ा इतराइ और फिर, पूछा मुझसे,"कहाँ थी तुम"? यही वो सवाल था, जिसकी खोज़ में मैं खो गयी थी। कुछ वक़्त हुआ ही था ना जाने वो हवा मुझे कहाँ ले गई।। मेरी बातों ने उसे बेचैन कर दिया, फिर भी मौन रहकर वो वक़्त की ग़ुलामी करती रही। काग़ज के साथ मेरे इंतज़ार में बैठी रही। देखो आज तुम्हारी ग़ुलामी और इंतज़ार दोनों की घडी ख़त्म हुई। ऐसा कहते ही मैं थोड़ा इठलाइ, और हवाओं में फिर से हमारी हँसी की गूंज-सी लहराई।। बेखबर एक सवाल फिर मेरी ओर आया, सब्र के साक्षी ने पूछा, "कैसे तुम्हें आज हमारा ख्याल आया"? कौशल की अपेक्षा किसे नहीं होती भला, खुशनसीबी मेरी कि तुम दोनों का नाम याद आया। और फ़िर इस मुलाक़ात में, मैंने अपने ही वजूद को मेरे साथ पाया।। आज पूर्णत् ज्ञात हुआ मुझे, मुश्किल होता ह